चंद्रवशी राजा पुरुरवा और स्वर्ग की अप्सारा उर्वशी की प्रेम कथा प्रचलित है। एक दिन उर्वशी धरती की यात्रा पर थी। धरती के वातारवण से उर्वशी मोहित हो गई। अपनी सखियों के साथ वह धरती पर कुछ समय व्यतीत करने के रुक गई। उर्वशी जब पुन: स्वर्ग लौट रही थी तब रास्ते में एक राक्षस ने उसका अपहरण कर लिया।
अपहरण करते वक्त उस समय वहां से राजा पुरुरवा भी गुजर रहे थे, उन्होंने इस घटना को देखा और वे अपने रथ से राक्षस के पीछे लग गए। युद्ध करने के बाद उन्होंने राक्षस से उर्वशी को बचा लिया। यह पहली बार था जब किसी मानव ने उर्वशी को स्पर्श किया था। उर्वशी पुरुरवा की तरफ आकर्षित हो गई और पुरुरवा भी स्वर्ग की अप्सरा को अपना दिल दे बैठे।
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लेकिन उर्वशी को पुन: स्वर्ग लौटना ही था। दोनों ने भरे मन से एक दूसरे को विदाई दी। जुदा होने के बाद दोनों के ही मन से एक दूसरे का खयाल निकल ही नहीं रहा था। दोनों को अब जुदाई बर्दाश्त नहीं हो रही थी।
एक बार स्वर्ग में एक प्रहसन (नाटक) का आयोजन किया गया। इस प्रहसन में उर्वशी को लक्ष्मी माता का किरदार निभाना था। किरदार निभाते हुए उर्वशी ने अपने प्रियतम के तौर पर भगवान विष्णु का नाम लेने की बजाय पुरुरवा का नाम ले लिया। यह देखकर नाटक को निर्देशित कर रहे भारत मुनि को क्रोध आ गया। उन्होंने उर्वशी को शाप देते हुए कहा कि एक मानव की तरफ आकर्षित होने के कारण तुझे पृथ्वीलोक पर ही रहना पड़ेगा और मानवों की तरह संतान भी पैदा करना होगी। यह शाप तो उर्वशी के लिए वरदान जैसा साबित हुआ। क्योंकि वह भी तो यही चाहती थी। शाप के चलते एक बार फिर उर्वशी पृथ्वीलोक आ पहुंची। फिर वह पुरुरवा से मिली और अपने प्यार का इजहार किया।
फिर पुरुवस् का विवाह उर्वशी से हुआ और वे दोनों आनंदपूर्वक साथ रहने लगे। कहते हैं कि कुछ काल के बाद र्स्वगलोक के देवताओं को दोनों का साथ पसंद नहीं आया। उर्वशी के जाते हैं स्वर्ग की रौनक चली गई थी तो वे चाहत थे कि उर्वशी पुन: स्वर्ग लौट आए। तब उन्होंने दोनों को अलग करने की चाल सोची।
इस घटना से उर्वशी शर्त टूट गई। इस शर्त के टूटते ही उर्वशी स्वर्गलोक के लिए रवाना हो गई। दोनों बेहद ही दुखी हए। हालांकि उर्वशी अपने साथ पुरुरवा और अपने बच्चे को ले गई। कहते हैं कि बाद में उसने अपने बच्चे को पुरुरवा को सौंपने के लिए कुरुक्षेत्र के निकट बुलाया। हालांकि बाद के काल में भी उर्वशी कई घटनाक्रम की वजह से धरती पर आईं और पुरुरवा से मिलती रही जिसके चलते उनके और भी बहुत बच्चे हुए।
ययाति ने पुरु को अपने पैतृत प्रभुसत्ता वला क्षेत्र प्रदाय किया जो कि गंगा-यमुना दोआब का आधा दक्षिण प्रदेश था। अनु को पुरु राज्या का उत्तरी, द्रहयु को पश्चिमी, यदु को दक्षिण-पश्चिमी तथा तुर्वसु को दक्षिण-पूर्वी भाग प्रदान किया। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए।
इसके बाद तंसु के कालिंदी से इलिन हुए, इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए, दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए, भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए, भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए, सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए, हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए, विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए, अजमीढ़ से संवरण हुए, संवरण के तप्ती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया।
देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली। शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।