इस संसार सागर में मानव का जन्म केवल धन दौलत कमाने, खाने, पीने और आराम की जिंदगी जीने के लिए नही हुआ जीवन में धन दौलत कमाने और वस्तुओं की प्राप्ति के लिए कर्म करना ही मात्र धर्म नहीं है. हम कहते है की मानव का सबसे बड़ा धर्म उसका कर्म ही है पर कर्म केवल स्वयं और अपने परिवार के लिए करना ही नहीं है.
कर्म को आगे बढ़ाना है, जीवन में परोपकार और पुण्य की भावना को लेकर दुसरो के हिट के लिए कुछ कर दिखाना है. उसी में हमारी जीत और कर्म की परिभाषा पूर्ण होती है .परोपकार और पुण्य को बढ़ाये बिना जीवन में श्रेष्टता आना संभव नहीं है। धन बढ़ने से धर्म नही बढ़ता धर्म तो तब बढ़ता है. जब कमाए गए धन का सही उपयोग हो दुसरो के हित में काम आये । धन से ही तृष्णा की भावना आती है.
धन से मन की भूख को तो तृप्त किया जा सकता है। धर्म को पूर्ण नहीं किया जा सकता इस धन से ही हम अपनों को भी भूल जाते है. अहंकार को धारण कर आपसी भाईचारा भूल जाते है . धर्म तो वह है. जिसमें मानव आपसी प्रेम रखे सभी के प्रति दया का भाव हो जीवन में परोपकार और दूसरों के दुःख को दूर करे उनके बीच खुशियों के बीज बोये यही धर्म है. और इसी से इन्शान को इस जगत में पद और प्रतिष्ठा मिलती है. आपको अपने जीवन में अपने पड़ोसी की जरूरत को भी समझना होगा चाहे वह कितना भी गरीब क्यों न हो उसका साथ देना होगा .
कई बार यह भी होता है. हम मुहं देखा व्यवहार करते है. कहने का आशय की यदि सामने वाले के पास पैसा है. तो उसका बहुत साथ देते है . उससे बात करते है. भले ही वह हमारी बिलकुल मदद न करे और इसी बीच आप एक गरीब को ठुकरा देते है. जो हो सकता है किसी न किसी रूप में आपकी कोई बड़ी से बसी समस्या को हल कर देता है .
आपको चाहिए की आप एकता के साथ जीना सीखें यही आपका सबसे बड़ा धर्म है. और इसी से आप इस संसार सागर में श्रेष्ट मानव कहलायेंगे . और जीवन में ढेर सारी खुशियाँ पायेंगें . आपका यह जीवन सीमित है. जाने कब यह आत्मा इस शरीर को छोड़ दे कोई भरोसा नहीं .जीवन में सद मार्ग को अपनाते हुए कार्य करें यही आपका धर्म है .