खुलने लगे हैं दलों और दिलों के फासले के पर्दे
सीटों के मसले पर महागठबंधन के घटक दलों के झंझट की बातें जैसे-जैसे बाहर आ रही हैं, वैसे-वैसे दलों और दिलों के फासले के पर्दे भी खुलते जा रहे हैं। आपस में रस्साकशी की तीन बड़ी वजहें हैं। हैसियत से ज्यादा सीटों की आकांक्षा, दूसरे की फसल काटने की मशक्कत और पारिवारिक विरासत की हिफाजत। पहली और दूसरी वजहों की सियासी अहमियत और जरूरत हो सकती है, लेकिन तीसरी वजह के केंद्र में बिहार में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के उभरते नेता कन्हैया कुमार हैं, जो लालू प्रसाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी की सियासत के लिए सटीक और संगत नहीं दिख रहे हैं। बिहार की सियासत की नई पीढ़ी में प्रमुख रूप से तीन नाम शीर्ष पर हैं। लालू परिवार और राजद के भविष्य तेजस्वी यादव, वामदलों की उम्मीद कन्हैया कुमार और रामविलास पासवान के कुल दीपक चिराग पासवान। तीनों की अलग-अलग पहचान और आधार है।
कन्हैया से कई खेमे परेशान
कन्हैया के तेज-तर्रार तेवर, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय प्रसिद्धि और कुशल संवाद शैली से सिर्फ भाजपा को ही परेशानी नहीं है, बल्कि उन्हें भी है, जो प्रत्यक्ष तौर पर अब तक उनके खेमे में खड़े दिखते हैं। तेजस्वी और कन्हैया की उम्र लगभग बराबर है। दोनों लगभग एक साथ राजनीति में सक्रिय हुए हैं। दोनों की राजनीति भी भाजपा के प्रबल विरोध और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना पर टिकी है। दोनों का मकसद भले एक हो सकता है, किंतु दोनों के बीच दीवार भी दिख रही है, जिसे खत्म करने की कोशिश कभी नहीं की गई। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीति करने के लिए कन्हैया को बिहार में जिस जमीन की तलाश है, उस पर लालू यादव ने दावा ठोक रखा है। अपने गृह क्षेत्र बेगूसराय में सक्रिय होकर प्रचार अभियान में जुट चुके कन्हैया के लिए लालू सीट छोडऩे के पक्ष में नहीं हैं। बहाना है कि बिहार में भाकपा-माकपा का आधार नहीं है।
लालू के तर्क में कितना दम?
लालू के तर्क में कितना दम है, यह भविष्य तय करेगा, लेकिन अतीत बता रहा है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाकपा को बेगूसराय में एक लाख 92 हजार वोट मिले थे और उसके प्रत्याशी राजेंद्र प्रसाद सिंह तीसरे नंबर पर थे। वैसे भी इस क्षेत्र को बिहार में मिनी मास्को के नाम से जाना जाता है। शायद इसलिए कि भाकपा का यहां प्रारंभ से ही दबदबा रहा है। पिछली बार करीब दो लाख वोट लाने वाले भाकपा को राजद की ओर से निराधार बताने के संकेत को समझा जा सकता है।
दोनों की अदावत नई नहीं है
गांधी मैदान में पिछले 25 अक्टूबर को सीपीआई की रैली से तेजस्वी ने दूरी बनाकर कन्हैया के साथ प्रतिद्वंद्विता का संकेत छोड़ दिया था। कन्हैया की कोशिशों से पटना में आयोजित जिस एकता रैली में कांग्रेस के कद्दावर नेता गुलाम नबी आजाद समेत कई दिग्गज आए थे, वहीं तेजस्वी पटना में रहते हुए भी जाना मुनासिब नहीं समझा था। कोरम पूरा करने के लिए राजद की ओर से प्रदेश अध्यक्ष रामचंद्र पूर्वे और बेगूसराय के संभावित प्रत्याशी तनवीर हसन को भेज दिया गया था। संदर्भ आया तो अतीत के पन्ने पलटे जा रहे हैं। तेजस्वी ने कन्हैया की उस वक्त भी खोज-खबर नहीं ली थी, जब पटना में एम्स के डॉक्टरों के साथ विवाद हुआ था। बेगूसराय में मारपीट की घटना पर भी राजद नेता मौन ही रहे थे।