संगम की धारा में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंगलवार को श्रद्धा की डुबकी लगाई तो सियासत की बूंदें भी उछलीं. मुख्यमंत्री नहाकर निकल गए, लेकिन पार्टी मझधार में फंसी हुई है. बीजेपी को संगम की धारा से राम मंदिर के मुद्दे का किनारा चाहिए. इसी किनारे की खोज में केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या पर ऐसी अर्जी लगा दी जिससे पार्टी की बांछें खिल उठीं.
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई है कि पौने तीन एकड़ विवादित जमीन की जगह वही जमीन राम मंदिर के लिए दे दी जाए जिसपर हिंदू-मुसलमान का कोई झगड़ा नहीं है और जिसका अधिग्रहण 1993 में किया गया था. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीजेपी परेशान हो गई है. क्योंकि जिस कुंभ में योगी आदित्यनाथ पूरी कैबिनेट के साथ स्नान और ध्यान कर रहे थे उसी कुंभ में साधु संतों ने बगावत का ऐलान कर दिया था.
संघ से लेकर विश्व हिंदू परिषद तक ने बागी सुर अख्तियार कर लिया था. बात यहां तक बढ़ी कि संघ सीधे-सीधे जजों के घरों पर धावा बोलने की बात करने लगा. बीजेपी समझ गई कि 2019 जीतना है तो चुनाव के ऐलान से पहले मंदिर पर बताने और दिखाने के लिए कुछ न कुछ चाहिए.
मोदी सरकार ने अपने इरादों की किसी को भनक तक नहीं लगने दी. केंद्र सरकार ने अपनी याचिका में ये लिखा है कि इस अदालत की संविधान पीठ ने माना है कि 0.313 एकड़ के विवादित क्षेत्र के अलावा अतिरिक्त क्षेत्र अपने मूल मालिकों को वापस कर दिया जाए. राम जन्मभूमि न्यास ने 1991 में अधिगृहित अतिरिक्त भूमि मूल मालिकों को वापस दिए जाने की मांग की थी.
न्यास की लगभग 42 एकड़ जमीन अधिगृहित की है. केंद्र इस जमीन की वापसी के लिए अदालत की अनुमति चाहता है. लेकिन क्या ये इतना आसान है. क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले भी जमीन वापस करने को लेकर अपनी राय दे चुका है.
गैर- विवादित जमीन पर पांच सबसे जरूरी तथ्य…
1- 1993 में सरकार ने विवादास्पद ढांचे के पास 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था.
2- 1994 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा फैसला आने के बाद ये जमीन मूल मालिकों को लौटा सकते हैं.
3- 1996 में न्यास ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया लेकिन 1997 में कोर्ट ने खारिज कर दिया.
4- 2002 में विवादित जमीन पर पूजा शुरू हो गई तो असलम भूरे रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए.
5- 2003 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विवादित और गैर विवादित जमीन को अलग करके नहीं देख सकते.
खुद पार्टी के अंदर, सरकार के अंदर और संघ के अंदर असंतुष्ट आवाजें उठने लगीं और जब लगा कि ये आवाजें ऊंची हो रही हैं तो सरकार ने जमीन वापसी की अर्जी अदालत में आगे बढ़ा दी.
नरसिंहा राव सरकार ने अधिग्रहित की थी जमीन
अयोध्या में रामजन्मभूमि के आसपास करीब 70 एकड़ जमीन केंद्र सरकार के पास है, जिसमें से 67 एकड़ जमीन 1993 में नरसिंहा राव सरकार ने अधिग्रहित की थी. इसमें से 2.77 एकड़ की जमीन पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 2010 मे फैसला सुनाया था. इसमें से जिस भूमि पर विवाद है वो जमीन महज 0.313 एकड़ है. 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने इस जमीन पर स्टे लगाया था और किसी भी तरह का निर्माण या काम-काज करने से इनकार किया था.
सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि इसमें 40 एकड़ ज़मीन राम जन्मभूमि न्यास की है. इसे राम जन्मभूमि न्यास को वापस कर दिया जाए. इस अर्जी के साथ ही मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि अगर सुप्रीम कोर्ट उसकी बात मान लेती है कि राम जन्मभूमि न्यास राम मंदिर का निर्माण कर सकता है.
30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने विवादित जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया था. जिस जमीन पर राम लला विराजमान हैं उसे हिंदू महासभा को, दूसरे हिस्से को निर्मोही अखाड़े को और तीसरे हिस्से को सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया गया था. अब सरकार ने गैर विवादित जमीन हिंदू पक्षों को देने की अपील की है.
निर्मोही अखाड़ा सरकार की अर्जी से नाराज
राम मंदिर पर मोदी सरकार की पहल को साधु-संत अपने-अपने चश्मे से देख रहे हैं. विपक्ष इसे मंदिर पर एक और सियासत बता रहा है जबकि निर्मोही अखाड़ा सरकार की अर्जी से नाराज है. उसके वकीलों ने कहा कि सरकार को अर्ज़ी दाखिल करने से पहले उनसे संपर्क करना चाहिए था. वहीं दूसरे साधु संत इसे धोखा और ऐसा कदम बता रहे हैं जिसका कोई फायदा नहीं मिलने वाला है. मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी को सरकार की अपील पर कोई ऐतराज नहीं है.
कुल मिलाकर कहानी ये है कि 2014 में जनता के लिए काम का खड़ा किया गया विमर्श राम के नाम पर आकर धराशायी हो चुकी है. बीजेपी के लिए मुश्किल ये है कि विपक्ष ने जिस तरह से नरेंद्र मोदी के खिलाफ घेरेबंदी की है उसका उसे भी अंदाजा नहीं था.