महाराष्ट्र के महानगरों में बड़ी संख्या में हिंदी भाषी आबादी रहती है जोकि चुनाव की दिशा तय करने में भी अहम भूमिका निभाती है। भाजपा-कांग्रेस दोनों ने इन मतदाताओं को साधने में विशेष जोर लगाया है। जानिए क्या रही है दोनों दलों की रणनीति और किसके साथ जाना पसंद करते हैं गैर मराठी भाषी लोग।
महाराष्ट्र की स्थापना 1960 में हुई थी। उस समय महाराष्ट्र की राजधानी बनी मुंबई (तब बंबई) में मराठी भाषियों की आबादी 41.64 प्रतिशत एवं उत्तर प्रदेश से मुंबई आए लोगों की 12.01 प्रतिशत थी। बीते 64 वर्षों में यहां उत्तर प्रदेश वालों की आबादी बढ़कर लगभग 25 प्रतिशत हो गई है और मराठी भाषी घटकर लगभग 37 प्रतिशत रह गए हैं।
यदि अन्य हिंदी भाषी राज्यों, जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली एवं हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों से मुंबई में आकर बसे हिंदी भाषियों को जोड़ लिया जाए तो मुंबई में हिंदी भाषियों की आबादी आज के मराठी भाषियों के बराबर या उनसे ज्यादा ही हो सकती है। गुजरात, दक्षिण भारत एवं पूर्वोत्तर के राज्यों को जोड़ लिया जाए तो निश्चित रूप से इन सभी की आबादी मुंबई की कुल आबादी के 63 प्रतिशत के आसपास पहुंच सकती है।
शिवसेना-मनसे से दूरी
इनमें वे गुजराती भाषी भी शामिल हैं, जो महाराष्ट्र के गुजरात से अलग होने से पहले मुंबई प्राविंस का ही हिस्सा हुआ करते थे। पिछले तीन दशक में उदारीकरण के बाद मुंबई, पुणे, नासिक, नागपुर और औरंगाबाद में आई निजी क्षेत्र की कंपनियों ने मुंबई के साथ-साथ इन महानगरों में भी परप्रांतियों की जनसंख्या तो बढ़ाई ही है, छोटे-मोटे रोजगार करने वालों की आबादी भी अच्छी-खासी बढ़ी है।
मुंबई में तो गैर मराठी भाषियों की आबादी ही दो तिहाई से अधिक है। यही कारण है कि शिवसेना अक्सर मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने का डर दिखाकर मराठी भाषियों का भयादोहन करती रहती है और उन्हें अपने से जोड़े रखना चाहती है, लेकिन इसी चक्कर में वह कई बार परप्रांतियों के साथ ऐसे दुर्व्यवहार भी कर चुकी है कि परप्रांतीय उसे अपना नहीं पाते। वे शिवसेना व मनसे जैसे दलों से दूर रहते हैं।
कांग्रेस ने दिया प्रतिनिधित्व
यह सच है कि महाराष्ट्र खासतौर से मुंबई में हिंदी भाषियों को जो प्रतिनिधित्व कांग्रेस ने दिया, वह भाजपा नहीं दे पाई। कांग्रेस द्वारा हिंदी भाषी नेता कृपाशंकर सिंह (अब भाजपा के टिकट पर जौनपुर से प्रत्याशी) के मुंबई क्षेत्रीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहते पहली बार मुंबई महानगर नौ सीटों पर हिंदी भाषी प्रत्याशियों को जीत हासिल हुई थी, जबकि शिवसेना चौथे स्थान पर जा पहुंची थी।
भाजपा से उत्तर भारतीयों के जुड़े रहने की वजह
मुंबई भाजपा के उपाध्यक्ष आचार्य पवन त्रिपाठी उत्तर भारतीय मतदाताओं को भाजपा की बड़ी ताकत मानते हैं। वह कहते हैं कि 2014 से भाजपा के साथ आई इस ताकत ने ही तब से अब तक मुंबई और ठाणे में कांग्रेस-राकांपा का खाता नहीं खुलने दिया। भाजपा के साथ-साथ नरेन्द्र मोदी के नाम पर तब की अविभाजित शिवसेना को भी जितवाने में इस वर्ग ने बड़ी भूमिका निभाई है।
इस बार भी इस वर्ग के भाजपा से दूर जाने का कोई कारण नजर नहीं आता। वह कहते हैं कि मुंबई एवं अन्य महानगरों में रहने वाला उत्तर भारतीय समूह एकजुट होकर भाजपा के साथ ही खड़ा है, क्योंकि यूपी सहित भाजपा शासित अन्य राज्यों में कानून-व्यवस्था सुधरने के कारण अब उसके पुश्तैनी खेत-बाग पर गुंडों द्वारा अवैध कब्जों की घटनाएं बहुत कम हो गई हैं। वह निश्चिंत होकर यहां अपना कामकाज कर पा रहा है।
वोटबैंक पर पकड़ के लिए भाजपा ने उठाए कदम
भाजपा भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के 400 पार के नारे को चरितार्थ करने के लिए परप्रांतियों, खासतौर से उत्तरभारतियों को अपने से जोड़े रखने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही है। इस चुनाव में यूपी के पूर्व उपमुख्यमंत्री एवं राज्यसभा सदस्य डॉ. दिनेश शर्मा को महाराष्ट्र के चुनाव प्रभारी की जिम्मेदारी दिया जाना भी इसी रणनीति का हिस्सा है।
वह मुंबई सहित महाराष्ट्र के अन्य नगरों में रहने वाले हिंदीभाषियों के बीच अब तक कई छोटी-बड़ी कई बैठकें और सभाएं कर चुके हैं। दिनेश कहते हैं महाराष्ट्र में रहने वाला उत्तर भारतीय जात-पांत से ऊपर उठकर भाजपानीत महायुति (भाजपा, शिवसेना शिंदे गुट एवं राकांपा अजीत गुट) के साथ खड़ा दिख रहा है।