मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव में मात्र 1 महीना शेष है। बीजेपी लगातार चौथी बार सत्ता पर काबिज होने के लिए चुनावी अभियान में जुटी हुई है, लेकिन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद के लिए ही मुसीबत बन गए हैं। दरअसल, पिछले 13 सालों से शिवराज सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री हैं और अब उनकी इतनी लंबी पारी ही उनके लिए मुसीबत बन गई है। इस समय बीजेपपी में उनके साथ के कई नेता टिकिट पाने की जद्दोजहद में जुटे हुए हैंं ।
दरअसल, 15 सालों के बीजेपी के शासनकाल में पार्टी में कई बदलाव हुए हैं और कई नेता शिवराज सिंह चौहान से नाराज हैं। पार्टी में पिछले 15 सालों में जो गुटबाजी हुई थी, इन चुनावों में वह अब सामने आ गई है। पार्टी के कई वरिष्ठ नेता गुटबाजी में शामिल हैं और अपने—अपने लोगों के लिए वोट की मांग कर रहे हैं। इतना ही नहीं बीजेपी भी उम्मीदवारों के चुनाव के लिए स्थानीय नेताओं की राय ले रही है, जिस दौरान यह गुटबाजी और ज्यादा उभरकर सामने आई है।
इतना ही नहीं इस बार ऐसी खबरें आ रही थीं कि बीजेपी कई वरिष्ठ नेताओं के वोट काट सकती है। ऐसी खबरों के बाद पार्टी के कई वरिष्ठ नेता जैसे बाबूलाल गौर, सरताज सिंह आदि ने खुलेआम इसका विरोध किया। इन नेताओं का कहना है कि पार्टी में ऐसा कोई फॉर्मूला कभी नहीं था कि अधिक उम्र के नेताओं को टिकिट न दिया जाए। इन नेताओं का ऐसा भी कहना है कि अगर उन्हें टिकिट नहीं दिया गया, तो इसका खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ेगा।
टिकिट की इस मारममार के बीच पार्टी के नेता अपने परिवार के लिए भी टिकिट मांग रहे हैं। बाबूलाल गौर ने इस बार अपनी बहू कृष्णा गौर के लिए टिकिट मांगा है। टिकिट के अलावा 13 साल की पारी में शिवराज सिंह चौहान ने कई वरिष्ठ नेताओं को हाशिए पर ढकेल दिया गया था। अब यही नेता फिर से मध्यप्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के लिए अपनी मांग उठा रहे हैं। यह नेता शिवराज सिंह चौहान के लिए मुसीबत बन सकते हैं।
इसके अलावा शिवराज सिंह चौहान के चहेते कई विधायकों का विरोध उनके ही क्षेत्र में हो रहा है, क्योंकि उन्होंने क्षेत्र के लिए कुछ नहीं किया, वहीं लोग भी शिवराज की इस लंबी पारी को अपनी मुसीबतों की जड़ मान रहे हैं। कुल मिलाकर कहा जाए, तो इस समय शिवराज सिंह चौहान का हाल वही है, जो 2003 में दिग्विजय सिंह का था। उस समय भी दिग्विजय सिंह 10 साल से मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे और कांग्रेस की हार के पीछे उनकी लंबी पारी के दौरान हुए बदलाव और पार्टी के नेताओं की अंदरूनी कलह ही मुख्य जिम्मेदार थी।