संसदीय समिति के अध्यक्ष काकर ने सिंध प्रांत के इन इलाकों का दौरा करने के बाद अपने जांच निष्कर्ष पत्रकारों के साथ साझा किए। उनका स्पष्ट रूप से मानना है कि सरकार ने जबरिया धर्म परिवर्तन के मामलों में किसी भी तरह की जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किया है। सरकार पूरी तरह इन मामलों को रोकने में विफल रही है। अधिकतर मामले सीधे तौर पर धर्म परिवर्तन के हैं। कुछ मामलों में दलील दी गई कि यह कार्य इन लड़कियों के जीवन स्तर में सुधार के लिए किया गया, लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता। ऐसे सभी मामले धर्म परिवर्तन के ही हैं। आर्थिक आधार या लालच देकर किया गया कार्य भी जबरिया धर्म परिवर्तन की श्रेणी में ही है।
संसदीय समिति ने यह भी कहा कि अत्याचार के साथ ही ¨हदू लड़कियों को यहां से ले जाने के लिए कई तरह के लालच दिए जाते हैं। जो लोग ये हरकतें कर रहे हैं, उनको सोचना चाहिए कि क्या वे अपनी लड़कियों के साथ भी ऐसा होना पसंद करेंगे। इन घटनाओं का शर्मनाक पहलू है कि ऐसे घिनौने कार्य करने वाले इन लड़कियों के परिवार वालों के दर्द और सम्मान का भी ध्यान नहीं रख रहे। समिति का मानना है कि पीडि़त परिवारों का विश्वास अर्जित करना हम सबके लिए बहुत जरूरी है।
समिति ने सुझाव दिया है कि जहां पर ¨हदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन कराया जा रहा है, वहां पर जिला प्रशासन को नियमों में परिवर्तन करना चाहिए। किसी भी लड़की के विवाह में उसके वली (माता-पिता या संरक्षक) की उपस्थिति और रजामंदी आवश्यक होनी चाहिए। जिला प्रशासन को ऐसी लड़कियों को स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए कि जबरन और सहमति की शादी में क्या फर्क है। नाबालिग लड़कियों के मामलों में जिला प्रशासन का दायित्व और अधिक बढ़ जाता है।
संसदीय समिति की रिपोर्ट के मुताबिक ज्यादातर मामले संगर, घोटकी, सक्कर, खैरपुर, मीरपुर खास और खैबर पख्तूनख्वा के हैं। पंजाब के कुछ हिस्से में ईसाई युवतियों के मामले सामने आए हैं। सामाजिक कार्यकर्ता कृष्ण शर्मा ने कहा कि ¨हदू लड़कियों के जबरन धर्म परिवर्तन में दो तरह के मामले देखने को मिल रहे हैं। इनमें पहले मामले अपहरण और अवैध रूप से रखे जाने के हैं। दूसरे किस्म के मामले और भी गंभीर हैं। इन मामलों में सुनियोजित प्रक्रिया के तहत कार्य किया जा रहा है।
इसमें देश का पूरा सिस्टम संलिप्त है। पुलिस से लेकर अदालत तक सभी नियमों का उल्लंघन कर धर्म परिवर्तन कराने वालों को पनाह दे रहे हैं। सिंध प्रांत में शादी की उम्र 18 साल है। इसलिए अदालतों को भी सीधे तौर पर नाबालिगों के मामले को देखना चाहिए।