देश भर के उपचुनाव के भी विजेता बन के निकले बीजेपी वाले

उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा को ताकत और विपक्ष को कड़ा सबक दिया है। नतीजों ने भाजपा की सभी सिटिंग छह सीटें बरकरार रखकर जहां प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर न होने का संदेश दिया वहीं, सपा, बसपा और खासतौर से कांग्रेस को नसीहत दी है । यह समझाने की कोशिश की है कि सरकार को लेकर उनके आरोपों को जनता महत्व नहीं देती।

विपक्ष को अगर जनता का समर्थन चाहिए तो उसे  ट्विटर पर टिप्पणी व बयान जारी करके चुप बैठ जाने के बजाय जमीन पर उतरकर जनभावनाओं को समझकर ठोस रणनीति बनानी होगी। जनता के सामने उसकी आकांक्षाओं को पूरी करने का सकारात्मक एजेंडा रखना होगा। नकारात्मक राजनीति के दिन फिलहाल उत्तर प्रदेश से लद चुके हैं ।

हालांकि सपा भी कह सकती है कि उसने भी अपनी मल्हनी सिटिंग सीट को बरकरार रख अपना दबदबा कायम रखा है । उसका रिजल्ट शत-प्रतिशत है ।  कांग्रेस तर्क दे सकती है कि उसने बांगरमऊ में भाजपा को सीधी टक्कर दी और घाटमपुर में मुकाबले को त्रिकोणीय बनाकर अपनी उपस्थिति का एहसास करा दिया है कि उसकी संभावनाएं खत्म न समझी जाएं।

बसपा भी कह सकती है कि उसने बुलंदशहर और घाटमपुर में भाजपा को सीधी टक्कर देकर तथा दूसरे स्थान पर रहकर दिखा दिया कि प्रदेश की राजनीति में वह चुकी नहीं है । साथ ही उसका भाजपा से कोई तालमेल नहीं है । पर, ये तर्क इन पार्टियों के नेतृत्व को भले ही आत्मसंतोष का अनुभव करा रहे हों लेकिन आम जनता की कौन कहे खुद इनके कार्यकर्ताओं के मन में आसानी से बैठने वाले नहीं लगते ।

सपा ने भले ही मल्हनी सीट बरकरार रखी और नौगावां सादात, देवरिया तथा टूंडला में दूसरे स्थान पर रही। उसने मत प्रतिशत में भाजपा के बाद दूसरे नंबर पर रहकर यह बताने की कोशिश की है कि कमल से मुख्य मुकाबला साइकिल का है । बावजूद इसके यह ध्यान रखने की जरूरत है कि सपा की तरफ से लगातार ये दावा किया जा रहा था कि योगी सरकार जनता का भरोसा को चुकी है । उसने उपचुनाव के नतीजों से इस पर मुहर लगने का दावा किया था । साथ ही राज्यसभा चुनाव के दौरान बसपा के सात विधायकों को तोड़कर यह संदेश देने की कोशिश की थी कि उसका ग्राफ चढ़ रहा है ।  

ऐसे में सिर्फ अपनी मल्हनी सीट बनाए रखना सपा की ताकत नहीं मानी जा सकती । इसी तरह कांग्रेस जिन दो सीटों पर लड़ाई में रही वहां पार्टी से ज्यादा स्थानीय उम्मीदवार का ज्यादा असर रहा। इसलिए उसे बांगरमऊ और घाटमपुर के आंकड़ों पर इतराने के बजाय शेष स्थानों पर राष्ट्रीय दल होने के बावजूद गिनाने लायक वोट न मिलने पर आत्मविश्लेषण करने की ज्यादा जरूरत नजर आ रही है ।

बसपा को भी हकीकत समझने की जरूरत है कि वह प्रदेश में तीसरे नंबर की पार्टी बनकर रह गई है । भाजपा रणनीतिक रूप से भी विपक्ष पर भारी है । जिस तरह बुलंदशहर और अमरोहा में अच्छी संख्या में मुस्लिम मतदाता होने के बावजूद कमल खिला उससे यह साफ हो गया कि रणनीतिक मोर्चे पर भी विरोधी दल असफल रहे । राज्यसभा चुनाव के दौरान सपा का बसपा को तोड़ना एक तरह से भाजपा के पक्ष में गया । उसके पक्ष में ध्रुवीकरण हुआ है।

दरअसल, विपक्ष की तरफ से खासतौर से सपा और कांग्रेस के नेता पिछले दिनों प्रदेश में बिकरू, प्रयागराज और हाथरस की घटनाओं को लेकर भाजपा सरकार से जनता का भरोसा उठने का दावा कर रहे थे । पूर्वांचल में ब्राह्मण व ठाकुरों के बीच वर्चस्व व टकराव की दावे विपक्ष की तरफ से हो रहे थे। बलिया में कोटे की दुकान आवंटन के दौरान हुई घटना को लेकर पिछड़ी जातियों के भाजपा से छिटकने के दावे भी विपक्ष की तरफ से हो रहे थे । कोरोना के कामों को लेकर भी सरकार पर हमले हो रहे थे । 

हाथरस को लेकर राहुल और प्रियंका गांधी सड़कों पर दिखे और योगी सरकार की विदाई के दावे किए। रालोद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जयंत चौधरी का मुखर विरोध भी सामने आया। सभी ने इस घटना को अनुसूचित जाति के सम्मान, स्वाभिमान से जोड़कर यह माहौल बनाने का प्रयास किया कि भाजपा सरकार में इस वर्ग की इज्जत सुरक्षित नहीं है।

उससे बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित भी यह मान बैठे थे कि पश्चिम में खासतौर से जाट और अनुसूचित जाति का वोट भाजपा से छिटका है । ये निष्कर्ष तलाशे जाने लगे थे कि यह उपचुनाव में भाजपा को झटका दे सकते हैं। पर, नतीजों से ऐसा नहीं लगता। खासतौर से देवरिया में सपा के कद्दावर ब्राह्मण नेता ब्रह्माशंकर त्रिपाठी की भाजपा के नए चेहरे डॉ. सत्यप्रकाश मणि त्रिपाठी के हाथों करारी हार ब्राह्मणों के भाजपा के साथ ही होने का संकेत दे रही है ।

भाजपा नेता अमित पुरी दावा करते हैं कि जनता समझ चुकी है कि विपक्ष के पास खोखले आरोप लगाने और नकारात्मक राजनीति करने के सिवाय कोई काम नहीं है। इसलिए उसने इन्हें सबक सिखाते हुए सिर्फ विरोध के लिए विरोध से बाज आने की नसीहत दी है । राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि नतीजों ने साबित कर दिया कि जनता का समर्थन सरकार को बना हुआ है।

सेंट्रल फॉर दि स्टडी ऑफ सोसाइटी एंड पॉलिटिक्स कानपुर के निदेशक डॉ. एके वर्मा कहते हैं कि विपक्ष जब तक मतदाताओं के रुझान और मन में आने वाले बदलाव को समझने की कोशिश नहीं करेगा तब तक यही होता रहेगा। उसे समझना होगा कि समाज में तो जातियों का प्रभाव रहेगा लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रणनीति धीरे-धीरे राजनीति से इसका प्रभाव खत्म कर रही है ।

पहले राजनीति में जाति काम करती थी लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने खुद को गरीबों के सरोकारों से जोड़कर व विकासवादी राजनीति को आगे करके उनकी आवश्यकताओं पर फोकस करके जो सिस्टम में बदलाव किए, विपक्ष इसे समझने में विफल रहा। गरीबों के खाते में सीधे धन पहुंचा, घर मिला, गैस मिली और कोरोना काल में मिले अनाज ने जातीय गोलबंदी तोड़ दी। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण में प्रधानमंत्री मोदी की कुशलता और भागीदारी को जनता का साथ मिला। डॉ. वर्मा की बात से साफ है कि जनता अब सिर्फ आरोपों की राजनीति में उलझने वाली नहीं है ।

Powered by themekiller.com anime4online.com animextoon.com apk4phone.com tengag.com moviekillers.com