होली रंग-राग, आनंद-उमंग और प्रेम-हर्षोल्लास का उत्सव है. देश के अलग-अलग हिस्सों में होली अलग-अलग तरीके से मनाई जाती है लेकिन मोक्ष की नगरी काशी की होली अन्य जगहों से अलग बिलकुल अद्भुत, अकल्पनीय व बेमिसाल है. आपने रंगों से होली तो खूब खेली होगी, लेकिन महादेव की नगरी काशी की बात ही निराली है. वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर शिव भक्त महाश्मशान में जलने वाले इंसानों के राख से तैयार भस्म से होली खेलते हैं.
दरअसल, फाल्गुन की एकादशी को यहां बाबा विश्वनाथ की पालकी निकलती है और लोग उनके साथ रंगों का त्योहर मनाते हैं. ऐसी मान्यता है कि बाबा उस दिन पार्वती का गौना कराकर दरबार लौटते है. दूसरे दिन शंकर अपने औघड़ रुप में श्मशान घाट पर जलती चिताओं के बीच चिता-भस्म की होली खेलते है. डमरुओं की गूंज और हर-हर महादेव के जयकारे व अक्खड़, अल्हड़भांग, पान और ठंडाई के साथ एक-दूसरे को मणिकर्णिका घाट का भस्म लगाते हैं. यह अद्भुत दृश्य होता है. धारणा यह है कि भगवान भोलेनाथ तारक का मंत्र देकर सबकों को तारते है. लोगों की आस्था है कि मशाननाथ रंगभरी एकादशी के एक दिन बाद खुद भक्तों के साथ होली खेलते है. इस बार काशी में रंग भरी एकादशी 26 फरवरी को मनाई गई.
मां खेलैं मसाने में होरी,
दिगंबर खेलैं मसाने में होरी,
भूत पिशाच बटोरी,
दिगंबर खेलैं लखि सुन्दर फागुनी छटा की,
मन से रंग गुलाल हटा के ये,
चिता भस्म भरि झोरी,
दिगंबर खेलैं, नाचत गावत डमरू धारी,
छोड़ें सर्प गरल पिचकारी,
पीटैं प्रेत थपोरी, दिगंबर खेलैं मसाने में होरी..
भक्तों संग महादेव खेलते हैं होली
काशी में महादेव ने ना सिर्फ अपने पूरे कुनबे के साथ वास किया बल्कि हर उत्सवों में यहां के लोगों के साथ महादेव ने बराबर की हिस्सेदारी की. खासकर उनके द्वारा फाल्गुन में भक्तों संग खेली गयी होली की परंपरा आज भी जीवंत की जाती है बल्कि काशी के लोगों द्वारा डमरुओं की गूंज और हर हर महादेव के नारों के बीच एक-दूसरे को भस्म लगाने परंपरा है.
भूतनाथ की मंगल होरी,
देखि सिहायें बिरज की छोरीय,
धन-धन नाथ अघोरी,
दिगंबर खेलैं मसाने में होरी..
चिता की भस्म से खेली जाती है होली
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक, काशी के मणिकर्णिका घाट पर शिव ने मोक्ष प्रदान करने की प्रतिज्ञा ली थी. काशी दुनिया की एक मात्र ऐसी नगरी है जहां मनुष्य की मृत्यु को भी मंगल माना जाता है. मान्यता है कि रंगभरी एकादशी एकादशी के दिन माता पार्वती का गौना कराने बाद देवगण एवं भक्तों के साथ बाबा होली खेलते हैं. लेकिन भूत-प्रेत, पिशाच आदि जीव-जंतु उनके साथ नहीं खेल पाते हैं. इसीलिए अगले दिन बाबा मणिकर्णिका तीर्थ पर स्नान करने आते हैं और अपने गणों के साथ चिता भस्म से होली खेलते हैं. नेग में काशीवासियों को होली और हुड़दंग की अनुमति दे जाते हैं.
काशीविश्वनाथ का अड़भंगी रुप
भावों से ही प्रसन्न हो जाने वाले औघड़दानी की इस लीला को हर साल पूरी की जाती है. अबीर गुलाल से भी चटख चिता भस्म की फाग के बीच गूंजते भजन माहौल में एक अलग ही छटा बिखेरती है. जिससे इस घड़ी मौजूद हर प्राणी भगवान शिव के रंग में रंग जाता है.
भांग के बिना होली अधूरी
भांग और ठंडाई के बिना बनारसी होली अधूरी मानी जाती है. यहां भांग को शिवजी का प्रसाद मानते हैं. होली पर यहां भांग का खास इंतजाम करते हैं. तमाम तरह की ठंडाई घोटी जाती है, जिनमें केसर, पिस्ता, बादाम, मघई पान, गुलाब, चमेली, भांग की ठंडाई काफी प्रसिद्ध है. भांग और ठंडाई की मिठास और ढोल-नगाड़ों की थाप पर जब काशी वासी मस्त होकर गाते हैं, तो उनके आसपास का मौजूद कोई भी शख्स शामिल हुए बिना नहीं रह सकता.