महामृत्युंजय मंत्र के देवता महाकाल और तंत्र के देवता श्रीशिव के कोतवाल श्रीभैरव महाराज के विराजमान होने से उज्जयिनी में ज्ञान, शक्ति और चेतना की त्रिवेणी सदैव प्रवाहमान रहती है और इनकी आराधना से भक्तजनों के अधिदैविक, अधिभौतिक और सांसरिक तीनों तरह के ताप अथवा दुखों से त्राण मिलता है और मिलती है भय से मुक्ति। तामसिक अनुष्ठानों से पापहरण कर सर्वसिद्धिदाता मदिरापान करने वाले देव कालभैरव अदभुत रहस्यों की छवि के साथ अवंतिकापुरी का पुरातनकाल से रक्षण करते रहे हैं।
भैरव पूर्णरूपो ही शंकरस्य परात्मन: ।
।। शतरुद्र संहिता ।।
भैरव को साक्षात शंकर ही मानना चाहिए।
कैसे हुआ कालभैरव का जन्म
एक बार ब्रह्मा और विष्णु के मध्य विवाद हो गया। दोनों अपने को श्रेष्ठ बताकर श्रीशिव को तुच्छ कहने लगे। तब श्रीशिव के क्रोध से भैरव नाम विकराल पुरुष उत्पन्न हुए। श्रीभैरव का स्वरूप अत्यंत भयानक साक्षात काल के समान था, जिससे काल भी डरता था। जिससे इनका नाम कालभैरव हुआ। श्रीशिव ने कालभैरव को ब्रह्मा पर शासन कर संसार का पालन करने का आदेश दिया।
भोलेनाथ की आज्ञा का पालन करते हुए श्रीकालभैरव ने ब्रह्माजी का पांचवा शिर अपने नरवाग्र से काट दिया। तब भयभीत होकर ब्रह्मा- विष्णु श्रीमहाकाल को शरणागत हो गए। तब श्रीशिव ने दोनों को क्षमा करते हुए अभयदान दिया और श्रीकालभैरव से कहा कि, चूंकि श्रीभैरव भक्तों के पापों का तत्काल नाश कर देंगे अत: भैरव महाराज का नाम पापभक्षण भी होगा। साथ ही श्री विश्वनाथ ने अपनी प्रियनगरी काशी का कोतवाल भी उनको बनाया।
स्कन्दपुराण के अनुसार पूर्वकाल में कालचक्र के द्वारा कुछ कृत्याएं प्रगट की गई, जो योगिनीगण के नाम से प्रसिद्ध थी। उनमें से एक काली नामक प्रसिद्ध योगिनी थी। उसने भैरवजी को पुत्रवत पाला था। भैरव महाराज ने क्षेत्र के समस्त दोष और उत्पात नष्ट कर दिए। महामारी, पूतना, कृत्या, शकुनी, रेवती, खला, कोटरी, तामसी और माया, ये नौ मातृकाएं भयंकर और दुष्ट प्रवृत्ति की थी। तब श्रीभैरव ने इनको वश में किया था।
कालभैरव है तंत्रसाधना का प्रमुख केंद्र
शिवप्रया काशी के बाद अवंतिका पुरी में श्रीभैरव अपने सर्वाधिक स्वरूपों में विराजमान है। भैरव महाराज लोकदेवता के रूप में उज्जयिनी की परंपरा के अभिन्न अंग बन चुके हैं। भैरव को शिव अवतार माना जाता है। तैतरीय उपनिषद में कहा गया है कि रुद्र ही भैरव है।
तंत्रशास्त्र में दस भैरवों का उल्लेख किया गया है। उज्जयिनी अष्टभैरवों की नगरी है ये अष्टभैरव दंडपाणी, विक्रांत, आताल-पाताल या महाभैरव, बटुक, गौरे, क्षेत्रपाल, आनन्द और कालभैरव के रूप में विख्यात है। अष्टभैरव में कालभैरव प्रमुख देव है। कालभैरव को मदिरा का देव भी कहा जाता है। कामाख्या मेदिर के बाद तंत्रसाधना की सर्वाधिक उपासना और उपयुक्त स्थली उज्जैन नगरी है और उज्जैन में भी कालभैरव को तंत्र का प्रमुख देवता माना जाता है।
कालभैरव मंदिर है 6000 साल पुराना
कालभैरव देवता की चमत्कारी प्रतिमा अनादिकाल से पृथ्वीलोक की इस मोक्षपुरी में विद्यमान है। कालभैरव के प्राचीन मंदिर का निर्माण भद्रसेन नाम के राजा ने करवाया था। परमारकाल में यह मंदिर विशाल और भव्य रहा होगा। प्राचीन मंदिरों के ध्वांसशेषों से मंदिर का पुनर्निमाण होता रहा। मंदिर का निर्माण राजा जयसिंह ने भी करवाया था। वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार चुनचुनगिरी मठ कर्नाटक ने करवाया है। मंदिर लगभग 6000 साल पुराना बताया जाता है। इसके समीप ही प्राचीन पातालभैरवी मेंदिर है।
कालभैरव करते हैं मदिरा का सेवन
भगवान रुद्रावतार कालभैरव की सबसे रहस्यमयी क्रिया मदिरा सेवन है, जो श्र्द्धा और आस्था का जीवंत प्रतीक होने के साथ तंत्रोक्त समर्पण का मूर्तिमान स्वरूप है। यहां कालभैरव को भोग के रूप से मदिरा चढ़ाने की प्राचीन परंपरा है।
प्रसाद के रूप में भक्त भी यहां मदिरा का सेवन करते हैं। मंत्रोच्चार के गुंजित स्वरों के बीच जब मदिरा का पात्र श्रीकालभैरव के अधरों पर लगाया जाता है तो क्षणमात्र में पात्र रिक्त हो जाता है। यहां प्रतिदिन लगभग 250 बोतल शराब का कालभैरव को भोग लगाया जाता है। रविवार का दिन भैरव दिवस होने से यह आंकड़ा 500 बोतल तक पहुंच जाता है। तांत्रिक शक्तिपीठ होने के कारण यहां पर बलि का भी प्रावधान है।
भैरव साधना तंत्रमार्ग की साधना है, लेकिन जनसानम में भैरव कुलदेवता माने जाते हैं। भैरवदेव का प्रिय पेय मदिरा और प्रिय भोजन मांस है। भैरव महाराज का वाहन श्वान और प्रिय रंग लाल है। कृष्णपक्ष की रात्रि 12 बजे कालभैरव का जन्म हुआ था अत: परमप्रिय तिथि अष्टमी है। यदि इस दिन मंगलवार हो तो अति उत्तम माना जाता है। भैरव अष्टमी के दिन उपवास कर रात्रि जागरण के साथ कालभैरव की उपासना की जाती है। यह आराधना पाप और विघ्नों का नाश कर कल्याणमयी और मंगलदायी मानी जाती है। शिव और शक्ति का दर्शन, पूजन भैरव आराधना के बगैर अधूरा माना जाता है।
साल में दो बार कालभैरव करते हैं नगर भ्रमण
साल में दो बार डोल ग्यारस और भैरव अष्टमी को महाकाल के सेनापति कालभैरव पालकी में विराजमान होकर नगरभ्रमण के लिए प्रस्थान करते हैं। इन अवसरों पर तंत्र के देवता का आकर्षक श्रंगार किया जाता है। सिंधिया रियासत के दमकते आभूषण जो हीरे, मोती, पन्ना और पुखराज जैसे नायाब रत्नों की आभा से दमकते रहते हैं, धारण कर नगर विहार के लिए प्रस्थान करते हैं।
भैरव महाराज सवारी कालभैरव मंदिर से निकलकर सिद्धवट पर जाती है। सिद्धवट पर विराजित महादेव अपने अंश भैरव से भेंट करते हैं। अष्टमी तिथि को आताल-पाताल भैरव की सवारी निकलती है। समीप प्राचीन ओखरेश्वर शमशान घाट है जहां विक्रांत भैरव का पुरातन मंदिर है। मंदिर में विराजित प्रतिमा 4000 साल पुरानी मानी जाती है।
पूर्व में यहां का प्राचीन मंदिर शिप्रा की बाढ़ में बह गया था, लेकिन मूर्ति सुरक्षित रही। 1960 में डबराल बाबा ने इसकी खोज की।
अष्टभैरव की नगरी की पदवी धारण करने के साथ उज्जयिनी ने तंत्रपुरी बनने का गौरव भी प्राप्त किया है। मंत्र के सात्विक रूप और तंत्र के तामसिक स्वरूप के संगम से नगर और नगरजन आनादिकाल से सुख, शांति और भक्तिभाव का जीवन व्यतित करते हैं। जहां छप्पनभोग गौरस, शुद्धता और पवित्रता का प्रतीक है तो मांस-मदिरा का भोग शक्ति के साथ रक्षण का बाह्य प्रतीक है।