जान सबको प्यारी है। हर कोई अपनी जान बचाने की हरसंभव कोशिश करता है। इस आम फितरत के बावजूद कुछ लोग आत्महत्या जैसा कठोर कदम उठा लेते हैं। उनकी मन:स्थिति को समझने का प्रयास किया जाए तो अधिकतर मामलों में जिंदगी जीने से उकताहट सामने आती है। अहमदाबाद की आयशा बानो मकरानी (शादी के बाद आयशा आरिफ खान) की खुदकुशी का मामला भी ऐसा ही है जिसने गत दिनों साबरमती नदी में छलांग लगाकर अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।
आत्महत्या से पहले वीडियो में आयशा की मुस्कुराहट के पीछे जो दर्द का समंदर छलक रहा है, वह उसके पीछे नजर आ रही साबरमती नदी की मौजों से ज्यादा भयावह है। आयशा के पिता लियाकत अली मकरानी के अनुसार ससुराल वाले उसे दहेज के लिए परेशान किया करते थे। इसीलिए उसका पति आरिफ खान उसे जालौर से वापस अहमदाबाद उसके मायके में छोड़ गया। इससे जाहिर है कि मुस्लिम समाज को दहेज की लानत से काफी हद तक पाक करार देने के सभी दावे खोखले हैं। यह कुरीति अब समाज के हर वर्ग और तबके में अपनी जड़ें मजबूत कर चुकी है। हालांकि इस्लाम में निकाह और शादी-ब्याह को काफी सरल बनाया गया है। इसमें पैसों की नुमाइश पर पूरी तरह प्रतिबंध है। शरीयत में शौहर को अपनी होने वाली बीवी को मेहर की रकम देने के लिए कहा गया है। इसके अलावा घर बसाने की जिम्मेदारी भी इस्लाम में पतियों की ही है जिसमें पत्नी का भरण-पोषण, घर चलाना, उसमें इस्तेमाल होने वाली चीजों का इंतजाम भी उसी के सुपुर्द है। इसके बावजूद भारत ही नहीं पूरी दक्षिण एशियाई देशों के मुस्लिम समाज में भी दहेज का चलन पूरी तरह से चल पड़ा है।
दहेज का चलन आज हमारे समाज में जितना व्यापक हो चुका है, उसे हिंदू-मुस्लिम समाज के खांचे में बांटना ही सिरे से गलत है। यह दंश आज समाज में न जाने कितनी आयशाएं झेल रही हैं। बस नाम उनके अलग-अलग होते हैं। इन लड़कियों के घरवालों से दहेज के नाम पर मोटी रकम वसूल की जाती है। बहुत सी लड़कियां तो इसे जीवनभर चुपचाप सहती रहती हैं तो कुछ इससे तंग आकर आत्महत्या जैसा कदम उठाने को विवश हो जाती हैं।
आयशा का मामला केवल दहेज का भी नहीं है। इस दिल दहला देने वाले मामले में दहेज की कुप्रथा के साथ-साथ विवाहेत्तर संबंध जैसी बुराई भी सामने आई है। अजीब बात यह है कि मां-बाप बेटों की ऐसी करतूतों को न केवल नजरअंदाज करते हैं, बल्कि आरिफ जैसे मामलों में उसकी गलतियों का ठीकरा उलटे लड़की पर ही फोड़ दिया जाता है। ऐसे सभी मामलों के सिरे कहीं न कहीं पुरुष प्रधान सोच से जा मिलते हैं, जिसको हर हालत में बदले जाने की जरूरत है।