लड़कियां आपकी कल्पना से कहीं ज्यादा ‘गंदी’ होती हैं

मैंने ऐसा अक्सर अपने दोस्तों से सुना है कि इंजीनियरिंग कॉलेजों में लड़कों की अपेक्षा बहुत कम लड़कियां पढ़ती हैं. खासकर मिकेनिकल ब्रांच में. जिसकी वजह से लड़के ‘फ्रस्ट’ रहते हैं. लड़कों का ‘फ्रस्ट’ रहना, समाज में कितनी आम बात है. ‘मेरी गर्लफ्रेंड नहीं बन रही’ लड़कों के मुंह से निकले सबसे आम डायलॉग में से एक है. या फिर इसका दूसरा रूप, ‘मैं सिंगल ही खुश हूं’. हमारी बातचीत, सोशल मीडिया और नए ‘चेतन भगत दौर’ के साहित्य में लड़कों के ‘सिंगलत्व’ पर इतनी चर्चा हुई है, जैसे ये एक नेशनल लेवल का सीरियस मुद्दा हो. खैर.

लड़कियां आपकी कल्पना से कहीं ज्यादा 'गंदी' होती हैं

मैं डीयू में पढ़ी. यहां हिसाब-किताब उल्टा है. कुछ कोर्स ऐसे हैं, जिसमें लड़कियां लड़कों से ज्यादा हैं. जिसकी एक वजह ये है कि यहां गर्ल्स कॉलेज बहुत हैं. दूसरी ये कि डीयू में ‘ट्रेडिशनल’ कोर्स होते हैं. लिटरेचर, आर्ट्स, फिलॉसफी, साइकोलॉजी. जिन्हें पढ़ने का मतलब और पढ़ना है. कॉलेज से निकलते ही 10 लाख के पैकेज नहीं मिलते. हमारे यहां लड़कों पर नौकरी का इतना दबाव है कि बेचारों को पैदा होते ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई शुरू करनी पड़ती है.

यहां लड़कियां ज्यादा हैं, तो लड़कों के ‘फ्रस्ट’ होने के किस्से कम सुनाई पड़ते हैं.

बात लड़कियों की. आज अगर कोई फेसबुक या यूट्यूब पर ‘गर्ल्स हॉस्टल वीडियो’ नाम से एक भजन भी अपलोड कर दे, उसके लाखों व्यू हो जाएंगे. क्योंकि ‘गर्ल्स हॉस्टल’ के साथ एक पोर्नोग्राफिक सी मानसिकता जुड़ी है. सैकड़ों लड़कियां. सोती, खाती, नहाती, अधनंगी घूमतीं. लेकिन गर्ल्स हॉस्टल अधनंगे शरीरों के अलावा बहुत कुछ है.

हमारे मिडिल क्लास घरों में लोग नहीं जानते प्राइवेसी किस चिड़िया का नाम है. ये बात पहले भी एक आर्टिकल में लिख चुकी हूं कि जहां हम बड़े हुए, वहां अलग-अलग कमरों का कॉन्सेप्ट नहीं था. दरवाजों में कभी अंदर से कुंडियां नहीं लगती थीं. परदे नहीं गिरते थे. कपड़े बाथरूम में बदले जाते. ब्रा को स्लिप या टीशर्ट के नीचे सुखाया जाता.

इसके बाद जब गर्ल्स हॉस्टल में आधा कमरा नसीब होता है, ऐसा लगता है किसी ने शरीर को कैद से बाहर निकाल दिया हो. प्राइवेसी के नाम पर यहां भी कुछ नहीं होता. अपनी ‘स्पेस’ के नाम पर बस एक 6×3 का बेड होता है. पर यहां ऐसा कोई होता ही नहीं, जिससे आपको ‘शर्म’ करना सिखाया गया हो. न पापा के मिलने वाले आते हैं, न भाई के दोस्त. न मम्मी की सहेलियां जो आपको ऊपर से नीचे तक घूरती हैं. आप नहाकर बस एक तौलिये में निकल सकती हैं, कोई देखने वाला नहीं होता. फ़ोन से चैट या मैसेज क्लियर नहीं करने पड़ते. छुप-छुपकर कॉल्स नहीं लेने पड़ते.

लंबे समय तक एक बड़ा मिथक पब्लिक की बातचीत का हिस्सा रहा कि लड़कियां पादती नहीं हैं. कि वो खूब साफ़-सुथरी रहती हैं. देखने में इतनी प्यारी लगती हैं, दस्त जैसी बीमारियां तो उन्हें हो ही नहीं सकतीं. रोज नहाती हैं. कभी बदबू नहीं मारतीं. बॉयफ्रेंड से बात करने को परेशान रहती हैं. हर वक़्त उनका ‘टाइम’ चाहती हैं. खाना चिड़ियों की तरह चुगती हैं.

लड़कियों के अंदर उतनी ही गंदगियां होती हैं, जितनी की आप कल्पना कर सकते हैं. फर्क बस इतना है कि पब्लिक में कभी इसके बारे में वो बात नहीं करतीं. क्योंकि लड़कियों को बड़ा करने का अर्थ ही उन्हें ‘प्रॉपर’ बनने की ट्रेनिंग देना है. अपनी तरह से जीने की छूट उन्हें हॉस्टल में मिलती है. यकीन मानिए, किसी संडे को एक ही घंटे में ये सारी आवाजें किसी गर्ल्स हॉस्टल के एक विंग से सुनाई दे जाती हैं:

‘कौन चू** टट्टी करके गया है, पूरा टॉयलेट बास मार रहा है.’

‘अरे ह*** फ्लश तो कर दिया करो.’

‘चड्ढी धोनी हैं. पूरे हफ्ते की जमा हो गई हैं, एक भी पहनने को नहीं बची.’

‘यार ये गधा इतने फोन क्यों करता है. इनसिक्योर बास्ट**.’

‘आई डोंट वांट टू मीट हिम. मुझे अपना संडे चाहिए यार.’

‘अब नहा लेना चाहिए, दो दिन हो गए.’

और ‘फ्रस्ट’ होने की बात.

‘तेरे पीछे तो तीन पड़े हैं, एक मेरेको दे दे. जबसे पैदा हुई, तबसे सिंगल हूं’

‘इतने दिनों से नहीं किया है.’

‘मुझे शक है वो रात को बिस्तर पर ही मास्टरबेट करती है.’

हमारे हॉस्टल में प्रॉम नाइट होती थी. दूसरे कॉलेज से लड़के आते थे. डांस होता था. एक घंटे पहले तक कपड़े घिस रही, गुब्बारे फुला रही, कुर्सी पे सजावट के लिए चढ़कर कीलें ठोंक रही लड़कियां आधे घंटे के अंदर नहा धोकर ऐसी बन जाती थीं, मानो पार्लर से हजारों का पैकेज लेकर, सजकर आई हों. डेट पर जाने के पहले घंटों लगाकर बाल स्ट्रेट करती हैं. सबसे महंगी वाली ब्रा पहनती हैं. और हॉस्टल में कदम रखते ही बाल को बेढंगे से जूड़े में बांध लेती हैं. बाहों से ब्रा सरकाकर ऐसे निकाल फेंकती हैं, मानो ओलिंपिक में ‘ब्रा थ्रोइंग’ आ जाए, तो ये गोल्ड मैडल लेकर आएं. शायद हम सभी दो चेहरों के साथ जीते हैं. एक असल चेहरा, और एक वो मुखौटा जो हम समाज के सामने लगाते हैं. हॉस्टल हमें बेनकाब कर रखते हैं.

ये एक ऐसी दुनिया है, जो शादियों में होने वाले महिला-संगीत जैसी है. यहां सिर्फ औरतें हैं. एक दूसरे से ‘गंदी’ बातें करतीं. जैसे घर के पुरुष लड़के की बरात लेकर दूर चले जाते हैं. और औरतें अकेली घर पर गालियां गाती हैं. लड़कों के कपड़े पहन लेती हैं. सेक्स की बातें करती हैं. पुरुषों को गंदी गालियां देती हैं. ‘अवैध’ रिश्तों को सेलिब्रेट करती हैं. क्योंकि इस संगीत में कोई किसी को जज नहीं करता. औरत, बस औरत होती है. किसी की बहू, बेटी, बहन, मां या पत्नी नहीं. गर्ल्स हॉस्टल एक ऐसा ही संगीत है.

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